देश में नशे को लेकर बड़ी-बड़ी बातें तो खूब होती हैं—“बुरी लत है”, “सामाजिक समस्या है”, “युवा पीढ़ी बरबाद हो रही है”—पर वास्तविकता यह है कि नशे को अपराध सिर्फ तब माना जाता है जब कोई मदहोश होकर सड़क पर उत्पात मचाए। लेकिन अदालतों के केस-फाइल उठाकर देखिए तो समझ आएगा कि अपराध की सबसे उपजाऊ जमीन वही नशा है, और पेशी पर आने वाले कई अभियुक्तों का पहला और आख़िरी बचाव यही होता है—“हुजूर, सामने वाला नशे में था, उसे होश ही नहीं था कि वह क्या कर रहा था!”
यानी यदि कोई नशे में अपराध करता है, तो उसके अपराध की तासीर, गंभीरता और विनाशकारी व्यापकता सामान्य नागरिक की तुलना में कई गुना अधिक हो सकती है—पर न्याय व्यवस्था की विडंबना देखिए कि यही नशा फिर “बचाव का तर्क” भी बन जाता है!
आज खुद जब मैं न्यायालय में अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था, तो अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश चारु अग्रवाल की अदालत के बाहर तीन व्यक्ति खुलेआम उच्च स्तर के नशे में धुत खड़े थे—और सौभाग्य देखिए कि वे अपनी तारीख पर बिना किसी अधिवक्ता के स्वयं पेश होने वाले थे।
तीनों पूरी तरह लड़खड़ाती अवस्था में, बोली अस्पष्ट, शरीर असंतुलित—और फिर भी सीधे अदालत की देहरी पर!
सोचीए, जब कोर्ट के बाहर यह दशा है तो कोर्टरूम के अंदर न्याय की गरिमा का क्या हाल होगा?
पर चूंकि वह उस समय तक कोई “दृश्य अपराध” नहीं कर रहे थे—तो न्यायालय की हाथ बंधे रह जाते हैं।
न अपराध, न कार्रवाई।
और वही पुरानी मजबूरी—“भेजें तो भेजें कहां?”
लेकिन असल सवाल यह है कि क्या नशे में न्यायालय में उपस्थित होना खुद में एक गंभीर अपराध नहीं होना चाहिए?
एक व्यक्ति जिसने नशा किया हुआ है—
क्या वह अदालत की कार्यवाही समझ सकता है?
क्या वह न्यायाधीश के आदेश सुनकर समझ सकता है?
क्या वह उन आदेशों का पालन करने की मानसिक स्थिति में भी होता है?
स्पष्ट है—नहीं।
और जब नहीं—
तो फिर इस स्थिति को अपराध मानने में सरकारों की कौन-सी विवशता आड़े आती है?
सच्चाई यह है कि दिल्ली सहित महानगरों में अपराध का भारी बोझ नशे के चलते और बढ़ता जा रहा है, पर नशा-मुक्ति केंद्रों को या तो निजी हाथों में धकेल दिया गया है, या सरकारी स्तर पर इतनी लापरवाही है कि स्थिति स्वयं ही अपना मज़ाक उड़ाने लगी है।
सरकार को चाहिए कि कम से कम राजधानी और बड़े महानगरों में राज्य-नियंत्रित, मजबूत और जवाबदेह नशा-मुक्ति केंद्र स्थापित करे—जहां इस तरह के व्यक्तियों को सुरक्षित, कानूनी और तर्कसंगत प्रक्रिया के तहत भेजा जा सके।
क्योंकि अदालत की सुरक्षा, न्याय प्रक्रिया की मर्यादा और कानून के समक्ष पक्षकारों की मानसिक-कानूनी क्षमता—ये सब कोई “ऑप्शनल विषय” नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की बुनियाद हैं।
और हाँ—
आज की इस पूरी स्थिति को नोट कर लिया गया है।
आगामी समय में इस विषय पर आरटीआई लगाकर संबंधित विभागों से जवाब-तलब अनिवार्य रूप से किया जाएगा।
ताकि पता चले कि
नशे में अदालत में पेश होने वाले व्यक्तियों के लिए क्या दिशानिर्देश हैं,
क्या कोई SOP तैयार है या नहीं,
सुरक्षा और न्यायिक शुचिता बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाए जाते हैं,
और इस गंभीर खामी को सुधारने की कोई सरकारी इच्छा शेष भी है या नहीं।
जब कानून और व्यवस्था नशे के सामने घुटने टेकने लगें—
तो समझ लीजिए कि समस्या केवल व्यक्ति की नहीं, प्रणाली की नशा-ग्रस्तता की है।




